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शमशान के फूल

पोड़ा-बसंत ब्रह्मपुरी में जगु तिआडी कीर्तन करता, मृदंग बजाता, गांजा पीता और मुर्दों का दाह-संस्कार करता। अंत्येष्टि-कर्म-कांड करने वाले के रुप में जगु का नाम उस क्षेत्र में विख्यात था।


जब मुर्दा जलते समय सें सें करता और उसकी टांग खिंचाव से ऊपर की ओर उठ जाती, या उसकी आंतों से पानी निकल जाने की वजह से लाश आग नहीं पकड़ती, तब दूसरे अर्थी उठाने वाले भाई-बंधु जगु तिआड़ी से सलाह-मशविरा लेते थे।

गांजे के नशे में चूर जगु श्मशान के एक तरफ कोने में बैठकर नींद के झोंके लगाता था। आग देने वाले माल-भाईयों की आवाज सुनकर वह तुरंत उठ जाता था। उसके बाद अर्थी से वह तीन हाथ लंबा बांस निकालकर ‘मार-मार’ कहते हुए मुर्दे के ऊपर तीन-चार तड़ातड़ मार देता था।

मुर्दे का सिर उसके प्रहार से टूट जाता था और थोड़ा भेजा निकल कर बाहर दूर तक छिटक जाता था औऱ थोडी आग को बुझाने लगता था। ऊपर उठी हुई टांग को लाठी की मार से चिता के अंदर घुसा देता था। पेट फाड़कर दो हिस्से कराती हुई आंतडियों में आग लगकर लपलपाती जीभ की तरह चारों तरफ फैल जाती थी। पलक झपकते ही लाश राख में बदल जाती थी।

घुटनों तक राख, सूप, झाडू, हांडी, खप्पर और चिथड़े हुई गुदड़ी देखने से भयानक दृश्य दिखता था उस श्मशान का। नाखून, बाल, हड्डी के टुकड़े, चारों तरफ गंदगी के ढेर।

जगु तिआड़ी खुशी से लौट जाता था। पोखरी में खड़े होकर तेल लगाकर अपनी जांघों पर थप्पड़ मारते हुए कहने लगता था, “भगवान की कृपा से सब काम ठीक-ठाक हो गया।”

गांव में जब हैजा फैल जाता था, या कोई अन्य देवी प्रकोप होता था, लाशों के ढेर लग जाते थे। जगु तिआड़ी का भाव और बढ़ जाता था। सभी आकर उसकी खुशामद करने लगते थे। कोई आँख से आंसू टपकाता, तो कोई अपने खोंसे से पैसे निकालता था और कोई- कोई तो हाथ-पाँव पकड़कर कहने लगते थे, “मेरे बाप, थोड़ी मदद करो।” जगु तिआड़ी गंभीर मुद्रा में सबकी बातें सुनता था मगर तुरंत कोई उत्तर नहीं देता था।

“कल रात से घर में लाश सड़कर गंध देने लगी है।”

“नववधू दो दिन से घर में मरी पड़ी है।”

इसी तरह सब लोग उसके सामने गिड़गिड़ाने लगते थे।

जगु तिआड़ी पैसा लेने के मामले में किसी भी प्रकार की हिचक नहीं रखता था। एक रती-भर गांजा, एक तौला अफीम, चार आना जेब-खर्च नहीं मिलने से वह कहीं भी जाने के लिए टस से मस नहीं होता था। इसके अलावा दस दिन तक रीति के अनुसार कषाभात, पहनने के कपडे और दसवीं का खाना भी प्राप्त हो जाता था।

सधवा औरत के मर जाने से जगु को और ज्यादा फायदा होता था। धनवान औरत होने से कान की बाली, फूल, नथनी या गरीब घर की औरत होने से कम से कम चाँदी की अंगूठी दक्षिणा के हिसाब से जगु को मिल जाती थी। मुर्दे को चिता में जलाने से पहले उसके शरीर की अच्छी तरह से छान-बीन करता था, कहीं पहने हुए गहने छूट तो नहीं गए हैं। कभी-कभी लाश से बाली, फूल, नथनी आदि नहीं निकलने पर दांत भींचकर जोर से खींचकर उन्हें निकाल लेता था। कभी-कभी नाक कट जाती थी। नीले रंग का पानी निकलकर सारा मुँह भिगा देता था। फिर भी जगु तिआड़ी को कोई फर्क नहीं पड़ता था। यह उसका रोज का काम था, एक किस्म की ऊपरी कमाई का जरिया था। ऐसा करते-करते वह पत्थर-दिल हो गया था।

गर्भवती स्त्री होने से जगु तिआड़ी एक रुपया नहीं मिलने से लाश को छूता तक नहीं था। और दूसरे माल-भाईयों के साथ मिलकर लाश को सड़ाने की धमकी देता था।

एक रुपया मिल जाने से खुशी-खुशी ढोल बजाते हुए ‘राम-नाम सत्य’ है कहते हुए गांव की पगडंडी से बड़े-बड़े डग भरते आगे निकल जाता था। उसके काले पत्थर जैसे चिकने शरीर में जनेऊ दूर तक साफ चमकता दिखाई देता था। उसकी आवाज से सारा गांव कांप उठता था। बस्ती के आदमी, औरत बाहर निकल जाते थे। छोटे-छोटे बच्चें डर के मारे घर में छुप जाते थे। श्मशान घाट पर धोबी उस्तरे से एक गर्भवती औरत का पेट फाड़कर बच्चे को बाहर निकाल देता था और जगु तिआड़ी दो गड्डे खोदकर माँ- बच्चा दोनों की अलग-अलग चिता बना लेता था। कभी-कभी दोनों को एक ही चिता में सुलाकर अग्नि-दाह कर लेता था। चिता में जगह नहीं मिलने से एक लकड़ी से बच्चे को कुरेद कर एक पिंड का लोथड़ा बनाकर आग में फेंक देता था।

इस तरह जगु तिआड़ी अपनी धान की खेती के अलावा इस आय से अपना घर जैसे- तैसे चलाता था। इन्हीं पैसों से लेन-देन, शादी-ब्याह आदि खर्चे निकालता था।

कोई उसे कुछ भी नहीं बोलता था क्योंकि उस गांव में जगु के अलावा कोई और अनुभवी अंतयेष्टि कर्म-काण्ड वाला ब्राह्मण मालभाई नहीं था।

कोई तोल-मोल करने लगता था, जगु अपना महत्व बखान करते हुए दूसरों से तुलना करने लगता था और कहने लगता था, वह जितना भी मांग रहा है, काम के सामने कुछ भी नहीं है। अपना वर्चस्व दिखाते हुए वह अतीत की कई घटनाओं का वर्णन करता था यह सिद्ध करने के लिए उसके जैसा लाश जलाने वाला इस संसार में और कोई नहीं है। वह अपने काम पर गर्व अनुभव करता था।

पिछले साल नरसिंह मिश्र की पत्नी को तेज बारिश में जलाकर आते समय, सातगच्छिया बागान के अंतिम सिरे पर बिना सिर वाला धड़ सामने दिखाई पड़ा, उसके बाद पौष महीने की ठिठुरती रातों में जलोदर बीमारी में मरे हुए नाथ-ब्रह्म को जलाते समय उसके पेट से दो मटके पानी निकलकर जब चिता बुझ गई थी, तब असाध्य काम को उसने ही पूरा किया था। ये सारी पुरानी कहानियों को बहुत अच्छे ढंग से सुनाता था।

जगु तिआड़ी के लाश जलाने के ज्ञान के बारे गहरी जानकारी को उसके साथ एक घड़ी बात करने से पता चल जाता था।

रोज शाम को जगु तिआड़ी ‘भागवत-टुंगी’(सत्संग) में बैठकर अपने अनुभव के बारे सभी को बताता था, और हल्की-हल्की बारिश के मौसम में कई श्रोता उसे घेरकर बैठकर सुनते थे। चिलम से दम मारते हुए जगु पहले गला खंगारता था। सुनने वाले समझ जाते थे कि अब वह कहानी शुरु करने वाला है। एक बार किस प्रकार एक गर्भवती महिला की लाश जलाकर लौटते समय ‘मुक्ताझरा’ के पास आम के पेड़ की शाखा पर बैठकर एक चुड़ैल बच्चे को आग में सेंक रही थी। इस बात को वह इस तरह से वर्णन करता था कि श्रोतावर्ग ड़र के मारे सिमटकर दीवार से चिपक कर बैठ जाते थे।

इस तरह छोटी-सी ब्रह्मपुरी में जगु तिआड़ी अपना जीवन जी रहा था।

आश्विन की रात। शाम को आकाश में बादल उमड़ने लगे। जगु तिआड़ी का सिर दर्द से फटा जा रहा था। वह दोनो कानों के पास और ललाट पर चूना लगाकर माथे पर कपड़ा लपेटकर घर के सामने सीमेंट के चबूतरे पर बैठकर हरिवंश पुराण सुन रहा था।

गांव के अंदर से अचानक रोने की आवाज सुनाई दी। दूसरी बस्ती से कोई पान, सुपारी, जर्दा लेकर लौट रहा था। उसने खबर दी कि जटिया माँ बूढ़ी की बहू की मौत हो गई है।

देखते-देखते पूरे गांव में यह खबर आग की तरह फैल गई। जगु तिआड़ी कुछ कमाई होने का सोचकर खुश हो गया। लोग इधर-उधर की बातें करने लगे। बस्ती की औरतें कानाफूसी कर रही थी। कोई कह रहा था, “पाप गर्भिणी थी ”। दूसरा कह रहा था, गर्भपात करवाने के लिए कुछ जड़ी-बूटी खा ली थी - शरीर में जहर फैलने से मौत हो गई।”

जगु तिआडी चुपचाप सारी बातें सुन रहा था। फिर उसने अपने मुँह को एक तरफ घुमा लिया। जाति बिरादरी से बाहर निकाले जाने के डर से वह इतनी बड़ी कमाई को छोड़ने के लिए मजबूर हो गया।

जटिया माँ बूढ़ी का संसार में और कोई नहीं था सिर्फ सास और बहू दो प्राणी। गौणा होने के एक महीने बाद बेटा पैसा कमाकर ऋण चुकाने के लिए कलकत्ता चला गया था। तीन साल हो गए, मगर उसका कुछ अता-पता नहीं। पहले एकाध चिट्ठी लिख देता था मगर अब तो चिट्ठी आना भी बंद हो गया था। उस गांव के जितने ब्राह्मण -रसोइए गांव लौटते थे, कहते थे कि वह लड़का किसी औरत को लेकर माटियाबुरूज में रहता है। घर में बेचारी अकेली बहू। वह तो गया, गया, लेकिन बूढ़ी के सिर चिरकाल का कलंक लगाकर गया। बूढ़ी ब्राह्मणी उस दुख से उबर नहीं पाई।

बूढ़ी की उस दिन की दयनीय हालत के बारे में बताना शब्दों के बाहर था। मगर गांव के बुजुर्ग-लोगों ने उस बात को संभाल लिया। बुजुर्गों ने जटिया माँ को गाली देते हुए बहू को अपने काबू में नहीं रखने के लिए खूब फटकारा, फिर लाश को जल्दी जलाने का फैसला किया। नहीं तो, छाटिया थाने में खबर पहुंचने पर पूरी ब्रह्मपुरी के नाम की बदनामी होगी, फिर हमारा तो बहू-बेटियों वाला घर है।

जटिया माँ बूढ़ी ने सभी पंचों को कोटि -कोटि प्रणाम किया। उसने इस घोर विपदा से बचाने के लिए अपना आभार व्यक्त किया।

तब जाकर लाश को कंधा देने के लिए गांव के तीन-चार युवक आगे आए। पुआल की रस्सी बनाई गई और अर्थी सजाई गई, सूप, खपरा, शिलपट्ट झाड़ू और लकड़ी सब जमा कर दी गई। लाश को सिर से पैर तक कपड़े में लिपटा दिया और अर्थी में सुलाकर बांध दिया, मगर बुजुर्ग मालभाई नहीं होने से काम नहीं चल सकता था। आधे-घंटे के बाद लाश को नहीं जलाने से समस्या खड़ी हो जाएगी। अगर थाना बाबू के पास खबर पहुँच जाएगी तो सभी को भीतर कर दिया जाएगा। गांव में तो चुगलखोर लोगों की तो कमी नहीं है।

पंचों ने कहा, “तिआड़ी को बुलाओ।” तिआड़ी नहीं जाने से इतना बड़ा काम कोई आसानी से नहीं कर पाएगा।

जगु तिआड़ी को बुलाने कुछ लोग गए, मगर वह आने के लिए तैयार नहीं हुआ। वह अपनी जिद्द पर अड़ा रहा और कहने लगा, “पाप गर्भ से मरी है। मैं उसे छूऊँगा तक नहीं। असती-व्यभिचारिणी को मैं कंधा नहीं दूंगा।”

सब लोग समझाते- समझाते थक गए, मगर जगु अचल, अटल।

अंत में गांव के बूढ़े -बुजुर्गों के बहुत समझाने के बाद जगु तिआड़ी लाश उठाने के लिए तैयार हुआ, मगर पांच रुपए नहीं मिलने से वह इस पाप कर्म को हाथ नहीं लगाएगा, कहकर साफ-साफ उन्हें समझा दिया। जटिया माँ बूढ़ी ने अपने कुल्हड़ से जितने पैसे निकाले, उससे लकड़ी, मिट्टी का तेल, धोबी, नाई के लिए भी पूरे नहीं हो रहे थे। अंत में यह बात तय हुई कि बहू के नाक में सोने की जो नथनी लगी हुई है, उसे जगु तिआड़ी लेगा।

जगु तिआड़ी खुशी से उछल पड़ा और कहने लगा ‘राम-नाम सत्य है !’

श्मशान-घाट गीला और गंदा था। हांडी, लकड़ी, खोपड़ी, सूप, कुल्हड़, जले हुए अंगारें और राख का ढेर। चारों तरफ से सड़े मांस की बदबू आ रही थी।

पथश्राद्ध का कार्य पूरा हुआ। जगु तिआड़ी ने एक चिता बनाई और लाश को उसके ऊपर सुला दिया, फिर मुँह से कपड़ा हटा दिया।

चार-आने भर सोने की नथनी। लालटेन की रोशनी में जगु तिआड़ी ने देखा, नथनी लाश की नाक पर चमक रही थी।

बादल छँट गए थे, चाँद दिखाई देने लगा था, लाश के पीले चेहरे पर चांदनी झलकने लगी थी।

साथ में आए हुए लोग कहने लगे, “जल्दी काम पूरा करो। अगर पुलिस आ गई तो सब बिगड़ जाएगा।”

जगु ने नाक की नथनी निकालने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया। और देखा, बहू का निस्तेज चेहरा चाँद की रोशनी में फूल की तरह खिल रहा था। उसके मुँह को चारों तरफ से घेरकर रखा था घुंघराले काले बालों का जंगल। जैसे आकाश में चांद के पीछे घेरकर रखा हो काला -बादल।

बहू के चेहरे पर खिल रहा था मुरझाए हुए फूलों का लावण्य। उसके बिखरे हुए बालों में चांदनी की लहरें खेल रही थी।

जगु ने अपना हाथ पीछे कर लिया और देखने लगा आकाश में फीके चांद को। उसने अनगिणत लाशें जलाई थी, मगर एक दिन के लिए भी उसके मन में ऐसा तूफान नहीं उठा था। इस सुंदर मुखड़े से नथनी निकालने का साहस नहीं हुआ। बहू के चेहरे की सुंदरता को वह नथनी और बढ़ा देती थी। और पता नहीं, जगु तिआड़ी ने बहू के बारे में क्या-क्या सोच रखा था। इस समय जगु के मन में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि वह बहू कुछ दिन बाद माँ बन जाती। शायद और भी कुछ हो सकता था? मगर कुछ नहीं हो पाया। इसमें किसका दोष है?

बादलों की ओट में छिपे हुए चाँद की चाँदनी रात में निर्जन श्मशान की छाती में सोई हुई थी एक अधखिली कली अकेली। वास्तव में अकेली थी बहू। लाश को जलाने वाला जगु तिआड़ी बार-बार उसे निहार रहा था। उसका अनपढ़ देहाती मन अपनी भाषा में कह रहा था- सचमुच, बहुत ही अकेली थी वह, सिर्फ यहाँ ही नहीं, पहले से भी जिंदगी भर अकेली।

इस एकाकीपन से छुटकारा पाकर जिंदगी जीने के लिए कुछ ऐसा ही कदम उठाया था उसने, इसलिए तो आज श्मशान में पड़ी है। बहू के पीले चेहरे पर देख ली थी उसने जीने की इच्छा।

जगु को देरी करता देख साथ में आए हुए मालभाई विरक्त हो गए थे और डाँटते हुए कहने लगे, “अगर तू इस तरह देर करेगा तो हम लाश छोड़कर चले जाएँगे। पुलिस आएगी तो कौन उत्तरदायी होगा? ले, तेरी वह नथनी बाहर निकाल ले, नहीं तो हम लोग चिता जला देंगे। पहले तो नथनी लेने के लिए इतना मर रहा था, मगर अब ऐसा क्या हो गया, हाथ आगे नहीं बढ़ रहा है? ”

जगु तिआड़ी का मानो सपना टूट गया। वह खुद को लज्जित अनुभव करने लगा, फिर भी अपनी दुर्बलता को छिपाते हुए कहने लगा, “इस लाश की नथनी मैं घर नहीं ले जाऊँगा? यह पाप गर्भिणी थी।”

साथी लोग पूछने लगे, “तब तुम नहीं लोगे तो हम चिता को आग लगा दे? ”

जगु तिआड़ी अनमने भाव से कहने लगा, “हाँ, हाँ चिता जलाओ। अच्छे से आग लगाओ, सब जलकर राख हो जाए।”

हुत-हुत कर आग जलने लगी। बहू की गौरी मांसल देह आग में झुलसकर काली पड़ गई। चमड़ी में फोड़े पड़ परत-परत निकलने लगी।

जगु तिआड़ी निस्तब्ध होकर देखने लगा। दूर कहीं उल्लू, बाज और जंगली मुर्गियों की भीड़ लगी हुई थी। कहीं और दूर धान के खेतों के उस पार से लोमड़ियों की कर्ण-विदारक आवाजें आ रही थी।

गंदगी-अंधेरा-हड्डी, राख, अंगार। माँस जलने की बदबू चारों तरफ हवा में फैल गई थी।

साथ आए हुए लोगों ने जगु से कहा, “तुमने उस व्यभिचारिणी की नथनी को अपने घर न ले जाकर अच्छा काम किया। लेने से तेरा अमंगल हो जाता। देख नहीं रहे थे, किस प्रकार तड़प-तड़पकर वह मरी थी। अपने पेट के बच्चे को मारने जा रही थी, खुद नहीं मरेगी? धर्म अभी भी जिंदा है।”

अभी भी दहकते अंगारों को देखते हुए जगु कहने लगा, “रहने दो, दूसरों पर इस तरह टिप्पणी मत करो। कोई मनुष्य क्या किसी दूसरे मनुष्य को समझ सका है?”

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